सपनों की उड़ान: सूरज की कहानी Part-1
Chapter 1: शुरुआत
सूरज का बचपन एक छोटे से गाँव में बीता, जहाँ ज़िन्दगी का हर दिन एक नया संघर्ष था। गाँव का नाम था "शांतिपुर", जहाँ के लोग सीध-साधे और मेहनती थे। सूरज का घर गाँव के किनारे था, एक मिट्टी की बनी हुई छोटी सी झोपड़ी। उसकी छत छप्पर की थी, जो बरसात के दिनों में टपकती रहती थी। घर के चारों ओर खेत थे, जहाँ सूरज और उसके दोस्त दिनभर खेलते थे।
सूरज के पिता, रामलाल, गाँव के एकमात्र पानिपुरी वाले थे। रोज़ सुबह जल्दी उठकर वो अपने ठेले को सजाते, उसमें ताज़ी पानिपुरी बनाते और गाँव के बाज़ार में जाकर खड़े हो जाते। सूरज का भी मन करता कि वो भी पिता के साथ काम करे, लेकिन उसकी माँ, गीता, चाहती थी कि सूरज पढ़ाई करे और बड़ा आदमी बने। हालाँकि, घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि उसे अच्छे स्कूल में भेजा जा सके। गाँव के सरकारी स्कूल में ही उसका दाखिला हुआ, जहाँ वो दसवीं कक्षा में पढ़ता था।
गीता का स्वास्थ्य बहुत खराब रहता था। उसे अक्सर बुखार, खाँसी और कमज़ोरी की शिकायत रहती थी। घर में दवाईयों के पैसे भी नहीं होते थे। रामलाल ने बहुत कोशिश की कि गीता का इलाज अच्छे से हो, लेकिन गाँव के डाक्टर भी कह देते थे कि उसे शहर लेकर जाओ। मगर शहर जाने के पैसे कहाँ थे उनके पास?
सूरज का मन पढ़ाई में तो लगता था, लेकिन घर की हालत देखकर उसका मन अक्सर उदास हो जाता था। स्कूल में जब उसके दोस्त नई किताबें और पेन खरीदते थे, तो वो चुपचाप अपने पुराने पन्नों को देखकर संतोष करता था। लेकिन सूरज के अंदर कुछ बड़ा करने की चाहत थी। वो अक्सर अपने दोस्तों से कहता, "देखना, एक दिन मैं भी अपने पापा का नाम रोशन करूंगा। हम भी बड़ा घर बनाएंगे, माँ का इलाज कराएंगे और गाँव में सबसे बड़े आदमी बनेंगे।"
रामलाल जब रात को घर लौटते थे, तो सूरज उनके साथ बैठकर उनके दिनभर के संघर्षों की कहानियाँ सुनता था। एक बार, रामलाल ने कहा, "बेटा, मेहनत करने से कभी मत घबराना। भगवान देखता है, मेहनत का फल जरूर मिलता है।"
सूरज के लिए ये बातें एक सीख की तरह थीं। उसने ठान लिया कि वो अपने पिता की मदद करेगा और अपने घर की हालत बदलेगा। लेकिन, अभी वो सिर्फ़ 15 साल का था और उसके पास कोई ठोस योजना नहीं थी। उसे सिर्फ़ यही पता था कि उसे कुछ बड़ा करना है, ताकि उसके माता-पिता की मुश्किलें कम हो सकें।
गाँव में लोग रामलाल को इज्ज़त की नजर से देखते थे, क्योंकि वो ईमानदारी से अपना काम करते थे। सूरज भी अपने पिता की इस बात से प्रभावित था। एक दिन, जब सूरज अपने पिता के साथ बाज़ार में था, उसने देखा कि बहुत से लोग पानिपुरी खाने आ रहे थे। लेकिन पापा का ठेला छोटा था, जिससे कई लोग बिना खाए ही वापस चले जाते थे। सूरज ने सोचा, "अगर पापा के पास एक बड़ा ठेला होता, तो शायद ज्यादा लोग आ सकते थे और पापा ज्यादा पैसे कमा सकते थे।"
घर लौटते समय सूरज ने पिता से कहा, "पापा, अगर हम एक बड़ा ठेला बनवा लें, तो और भी ज्यादा लोग आ सकते हैं और आपका काम बढ़ जाएगा।" रामलाल ने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, बड़ा ठेला बनवाने के लिए पैसे चाहिए होते हैं। अभी हमारी हालत ऐसी नहीं है कि हम नया ठेला बनवा सकें।"
सूरज को पिता की ये बात समझ में आ गई, लेकिन उसने हार नहीं मानी। उसने सोचा, "मैं कुछ न कुछ जरूर करूंगा। पापा की मदद करूंगा और माँ को ठीक करवाऊंगा।" उस रात सूरज ने कसम खाई कि वो अपने परिवार की हालत को बदलकर ही दम लेगा।
समय बीतता गया, और सूरज की माँ की तबियत और बिगड़ने लगी। एक दिन, जब सूरज स्कूल से घर आया, तो देखा कि माँ बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थी। पिता ने सूरज से कहा, "बेटा, माँ को लेकर शहर जाना पड़ेगा। गाँव में अब कोई इलाज नहीं हो सकता।" लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वो माँ का इलाज करवा सकें।
सूरज ने अपनी किताबों को एक तरफ रखते हुए कहा, "पापा, अब मैं पढ़ाई नहीं करूंगा। मैं आपकी मदद करूंगा और माँ का इलाज करवाऊंगा। हम दोनों मिलकर पैसे कमाएंगे और माँ को ठीक करेंगे।" रामलाल ने सूरज को समझाने की कोशिश की, लेकिन सूरज का इरादा पक्का था। उसने पिता से कहा, "पापा, अगर हम अभी कुछ नहीं करेंगे, तो माँ और भी बीमार हो जाएंगी। मैं जानता हूँ कि आप मेरे भविष्य की चिंता करते हैं, लेकिन फिलहाल माँ की सेहत सबसे ज़रूरी है।"
रामलाल के पास कोई और चारा नहीं था। उन्होंने सूरज को अपने साथ काम पर ले जाने का फैसला किया। अब सूरज ने पढ़ाई छोड़कर पूरी तरह से पिता के काम में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। सूरज ने जल्दी ही पानिपुरी बनाने और बेचने के काम में निपुणता हासिल कर ली। वह ग्राहकों के साथ हँसी-मज़ाक करता, उनकी पसंद-नापसंद समझता और उन्हें खुश रखने की कोशिश करता।
धीरे-धीरे सूरज के प्रयास रंग लाने लगे। अब रामलाल का ठेला पहले से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गया था। लोग सूरज की मेहनत और उसकी मासूमियत की तारीफ करने लगे। कुछ लोग उसकी माँ के इलाज के लिए भी मदद करने लगे। सूरज को अपनी मेहनत पर गर्व था, लेकिन उसने अभी तक अपने सपनों को पूरा होते नहीं देखा था। उसके मन में अभी भी बड़े सपने थे, लेकिन उसने यह समझ लिया था कि उसे सब कुछ धीरे-धीरे और मेहनत से हासिल करना होगा।
इस तरह सूरज का बचपन गाँव में संघर्ष और सपनों के बीच बीत रहा था। उसकी ज़िन्दगी में चुनौतियाँ थीं, लेकिन उसके दिल में उम्मीद और हिम्मत की कोई कमी नहीं थी। सूरज ने ठान लिया था कि वो अपने परिवार के लिए कुछ बड़ा करेगा और अपने माता-पिता के लिए सुख-समृद्धि लेकर आएगा।